विज्ञान में नई सोच अन्तर्विरोध और विरोधाभासों से ही विकसित होती है

विज्ञान में नई सोच अन्तर्विरोध और विरोधाभासों से ही विकसित होती है

हम विरोधाभास ऐसे कथन, ऐसे विचार या ऐसी घटना को कहते हैं जो सामान्य बुद्धि के विरुद्ध होता है। विरोधाभास कई तरह के होते हैं कुछ अन्तर्विरोध के सूचक होते हैं तो कुछ तर्कशास्त्रीय विरोधाभास होते हैं। कुछ भी हो विरोधाभास एक तरह से अन्तर्विरोध ही हैं।

विज्ञान का अब तक का इतिहास बतलाता है कि विरोधाभास उस विचार श्रंखला को तोड़ देते हैं जिसका समाज आदी हो जाता है और हमें विवश करते हैं कि हम हर अस्पष्ट और असामान्य बात से मुंह मोड़ लें और बात को गहराई में जाकर देखें। 

विज्ञान में ऐसे अनेक तर्कशास्त्रीय विरोधाभास होते हैं जो नपेतुले होते हैं, जिनके बारे में यह कहना कठिन होता है कि ये सत्य हैं या असत्य। इस प्रकार के विचित्र तर्कों को वाक्छल या सोफिज्म कहते हैं।

एक व्यक्ति ने घोषणा की  कि मैँ जो कुछ भी बोलता हूँ, झूठ बोलता हूँ। इसका मतलब है कि  उसने इस बार भी झूठ बोला। लेकिन इस विरोधाभास में निष्कर्ष निकलता है कि उसने इस बार उसने खुद के बारे में सच कहा है। लेकिन इस आदमी की बात यदि सच है तो उसने झूठ ही कहा है। 

इटली में 15 वीं शताब्दी में एक खगोल वैज्ञानिक को मृत्यदंड देने की प्रक्रिया पर बहस चल रही थी- फाँसी दी जाय या गला काट लिया जाय?  मृत्युदंड देने से पहले रोमन जज  ने वैज्ञानिक से अपनी अंतिम इच्छा में कुछ बोलने को कहा और वचन दिया कि यदि तुम्हारी बात सच निकली तो तुमको फांसी मिलेगी और यदि झूठ निकली तो सर काट लिया जाएगा।

 वैज्ञानिक ने थोड़ा सोचकर कहा कि ''जज साहब आप मेरा सर काट लेंगे'' 

बस फिर क्या था जज को सजा निरस्त करनी पड़ी। क्योंकि अब यदि उसे फांसी देते हैं तो उसकी सर काटने की बात गलत होती है और गलत बात की सजा सर काटना है। यदि उसका सर काटते हैं तो उसकी बात सच होती है और सच बात की सजा फांसी है।

अन्तर्विरोध और विरोधाभास विज्ञान के विकास में बड़ी विनम्र भूमिका अदा करते हैं। किसी वैज्ञानिक शोध के दो स्तर होते हैं। पहला स्तर वह है जिसमें शोध के अस्पष्ट परिणाम प्राप्त होते हैं।  दूसरे स्तर पर जाकर शोध के व्यापक परिणाम होते हैं जो प्रेक्षणों पर आधारित होते हैं । यानी दूसरे स्तर में पहला स्तर समाहित होता है। 

फ्रांसीसी वैज्ञानिक लुइस डी ब्रोगली ने अपने शोध प्रबंध में लिखा कि 'नए वैज्ञानिक प्रयोग की प्रकृति कभी सरल नहीं होती जिसकीआसानी से व्याख्या की जा सके।  इसी कारण उस शोध के परिणाम में  व्याख्या का भी एक अंश शामिल हो पाता है। इसलिए  नए वैज्ञानिक तथ्य  भी अक्सर समाज की प्रचलित धारणाओं के साथ मिश्रित होकर आते हैं।'

विज्ञान के क्षेत्र में नई खोज को भी भारी विरोध के बीच से गुजरना पड़ता है। जब कोई वैज्ञानिक नया शोध प्रस्तुत करता है तब  समाज में उसका व्यापक विरोध होता है और विरोध की इस प्रक्रिया में ही वह  विकसित होता है। यही विज्ञान की प्रगति का एकमात्र रास्ता है।

स्वीडन की  Uppsala University में  सन 1880 में आरहीनियस ने अपना शोध कार्य  Electrolytic Theory Of Dissociation  प्रस्तुत करते हुए कहा कि जब किसी विधुत अपघट्य (Electrolyte)  को पानी में घोला जाता है तो इसका एक भाग धनायन(Cation) और ऋणायन (Anion) में विभक्त हो जाता है और ये आयन विद्युत चालकता के लिए जिम्मेदार होते हैं। उस समय कुछ वैज्ञानिकों सहित हजारों लोग  Uppsala University के बाहर तख्तियां लेकर खड़े थे। ये वैज्ञानिक इस भ्रांति से ग्रस्त थे  कि विपरीत आयन विलयन के अंदर अलग अलग कैसे रह सकते हैं? इसलिए आरहीनियस को डॉक्टरेट न दी जाय(No doctorate for Arrhenius) 


लेकिन Uppsala University ने भारी विरोध के बावजूद अपनी विज्ञप्ति में कहा कि आरहीनियस सही बोल रहे हैं क्योंकि उनका सिद्धांत प्रेक्षणों पर आधारित है।  Arrehenius is right. After all  his theory does explain observation.


अंतराष्ट्रीय समुदाय ने 23 वर्ष के लंबे अंतराल के बाद आरहीनियास के योगदान को स्वीकार करते हुए 1903 में उन्हेँ  रसायन विज्ञान का नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया।

लुईजी  गेल्वानी इटली के बेलोना यूनवर्सिटी में Anotomy के प्रोफेसर थे। उन्होंने 1781 में कटे हुए मेंढक (Dissected Frog) की मांसपेशी को तांबे के कांटे में  फंसाकर  लोहे की छड़ में फिट किया, उन्होंने देखा कि माँसपेशी में यकायक हलचल (Twitch) होने लगी। वे जीव विज्ञानी थे उन्होंने अपना सोच मांसपेशी तक ही सीमित रखा और निष्कर्ष निकाला  कि  पशुओं की मांसपेशी  विद्युत उत्पन्न करती है, जिसके कारण यह यकायक हलचल (Twitch) उत्पन्न हुई। उन्होंने इस विद्युत को Animal Electricity कहा।



इटली के ही दूसरे वैज्ञानिक अलेक्सानड्रो वोल्टा ने गैल्वेनी का विरोध करते हुए कहा कि हो सकता है  कि नमी के वातावरण में अलग अलग धातुओं के सम्पर्क में आने से विद्युत उत्पन्न हुई हो और मेंढक की मसल (Muscle) इसकी सूचक मात्र हो।



लेकिन वोल्टा को अपनी बात सिद्ध करने में 19 वर्ष लग गए। सन 1800 में उन्होंने अपने प्रयोग द्वारा सिद्ध कर दिया कि गैल्वेनी की Animal Electricity की धारणा गलत है। मैंने एक प्रयोग किया है जिसमें मैंने चांदी और जिंक की दो प्लेटों को नमक में भीगे हुए कपड़े में लपेडकर विद्युत उत्पन्न की है और यह प्रभाव जिंक और कॉपर सहित कई युग्मों के साथ और अच्छे परिणाम देता है।

इस तरह समाज में विद्यमान पहले से उपस्थित अवधारणाओं और सिद्धांतों का विरोध करने वाले  नए तथ्य विनाशकारी नहीं अपितु नए सृजन की भूमिका अदा करते हैं। हमें सोचना होगा कि या तो हम अपनी वैज्ञानिक चेतना के द्वार खुले रखें या देश की वैज्ञानिक प्रगति का पथ रोक दें। बिना अन्तर्विरोध व विरोधाभास के नया वैज्ञानिक विचार नहीं आता न ही वैज्ञानिक संवेदना आती है। 
अवधेश पांडे
4 अक्टूबर 2020

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